Sunday, September 10, 2023

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के निहितार्थ

महत्त्वाकांक्षी प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना को लागू हुए कई वर्ष बीत चुकें हैं और अब इसकी खामियाँ भी उजागर होने लगी हैं। यह बात गौर करने वाली है कि मॉनसून के रुझान का असर फसल बीमा के निर्धारण पर देखने को मिलता है। यही वज़ह है कि पिछले वर्ष अच्छे मानसून के कारण मुनाफा काटने के बाद इस वर्ष ख़राब मानसून की भविष्यवाणी के मद्देनज़र बीमा कम्पनियाँ पीछे हटती नज़र आ रही हैं।

क्या है फसल बीमा योजना? 

  • हमारे देश में लगभग 70 प्रतिशत आबादी किसानों की है, वह किसान ही है जो खेतों में मेहनत करके समूचे देश का पेट भरता है, आज़ादी के 70 सालों बाद आज भी देश का किसान बदहाल है और आत्महत्या करने को मज़बूर है। किसानों की समस्याओं का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार ने वर्ष  2016 में महत्त्वकांक्षी प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आरम्भ किया था जिसका उद्देश्य कम पैदावार या पैदावार के नष्ट हो जाने की स्थिति में किसानों को मदद मुहैया कराना था।
  • इस योजना के लिये 8,800 करोड़ रुपयों को खर्च किये जाने की बात की गई थी। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अन्तर्गत, किसानों द्वारा बीमा कम्पनियों को निश्चित दर पर प्रीमियम का भुगतान किया जाता है, लेकिन इसके लिये किसानों को पहले अपनी भूमि का पंजीकरण कराना होता है, बदले में बीमा कम्पनियाँ उन्हें मुआवजा देती हैं।

योजना को कमज़ोर बनाती समस्याएँ 

  • इस योजना के तहत खरीफ मौसम के लिये पंजीकरण करने की अंतिम तारीख 31 जुलाई के आसपास होती है, वहीं रबी फसलों के लिये 31 दिसम्बर तक का समय दिया जाता है।
  • प्रायः ऐसा देखा जाता है कि प्राकृतिक आपदा से फसल को हुए नुकसान के बाद भी किसानों को मुवावजा प्राप्त करने के लिये आमरण अनशन करना पड़ता है। योजना नियमों में विसंगति के कारण कारगर साबित नहीं हो रही है।

क्या हो आगे का रास्ता ? 

  • वर्तमान समय में ज़्यादातर राज्यों में, इस योजना के तहत बीमा कवर के लिये बोली लगाई जाती है और यह बोली एक सत्र (छह महीने) या दो सीजन (एक वर्ष) के लिये लगाई जाती है। यहाँ समस्या यह है कि बीमाकर्ता जो एक सीजन में बीमा कवर के लिये बोली जीतते हैं उन्हें अगले सीजन में आने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता हैं।
  • इससे होता यह है कि जिस साल मानसून बेहतर रहता है उस वर्ष बीमाकर्ता उल्लेखनीय लाभ कमाते हैं लेकिन जिस वर्ष मानसून की प्रतिकूल परिस्थित्तियाँ उत्पन्न होती हैं उस वर्ष वे बीमा कवर की ज़िम्मेदारी ही नहीं लेते।
  • गौरतलब है कि इस योजना में किसानों को बहुत ही कम दर पर प्रीमियम देना होता है क्योंकि अधिकांश भुगतान सरकार करती है अतः सरकार को चाहिये कि प्रत्येक सीजन में बोली लगाने के बजाय बीमाकर्ता कंपनियों के लिये कुछ वर्षों का समय तय कर दिया जाए, ताकि एक बार लाभ कमाने के बाद कम्पनियाँ, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी किसानों के साथ बनी रहें।
  • कम्पनियाँ इसलिये भी डरती हैं कि लाभ या हानि दोनों ही परिस्थियों में उन्हें ही सभी दावों का निपटारा करना होता है अतः सरकार को आगे आकर ‘रिस्क फैक्टर’ को कम करना होगा।
  • वर्तमान में फसल बीमा के लिये किसानों से प्रीमियम राशि ली जाती है जिसके अनुसार फसल के नुकसान होने पर बीमा राशि मिलती है। यदि फसल बीमे के प्रीमियम की राशि बढ़ा दी जाए, तो इससे किसानों को उनकी फसल नष्ट हो जाने पर उनके दावे की पात्रता भी मज़बूत होगी।
  • विदित हो कि सरकार ने कृषि क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंजूरी दे रखी है। ऐसे में भारत में बीमा क्षेत्र में आने वाली व कार्यरत विदेशी कंपनियों को कृषि क्षेत्र में 40 प्रतिशत निवेश करने की अनिवार्यता लागू करना एक महत्त्वपूर्ण सुधार हो सकता है।
  • यदि किसी एक ही गाँव के अलग-अलग क्षेत्रों में अतिविृष्टि या पाला पड़ता है, तो भी फसल प्रभावित होती है जबकि ऐसे गाँवों के अन्य क्षेत्र में सामान्य उत्पादन को देखते हुए उसे बीमा लाभ से वंचित कर दिया जाता है। इससे प्रीमियम अदा कर चुके पीड़ित किसानों को बीमे का शत-प्रतिशत लाभ नहीं मिल पाता। नियमों की इस प्रकार की विसंगति को दूर किया जाना चाहिये, ताकि वास्तविक हानि वाले किसान को लाभ मिल सके।

निष्कर्ष
देश की एक बड़ी आबादी गाँवों में रहती है और कृषि पर ही निर्भर है। ऐसे में किसानों की खुशहाली की बात सभी करते हैं और उनके लिये योजनाएँ भी बनाते हैं फिर भी मूलभूत समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई  है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना भी कहीं असफल योजनाओं की सूची में शामिल न हो जाए इसके लिये सरकार को उपरोक्त सुझावों को अमल में लाना चाहिये।